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अ॒भी नो॑ अग्न उ॒क्थमिज्जु॑गुर्या॒ द्यावा॒क्षामा॒ सिन्ध॑वश्च॒ स्वगू॑र्ताः। गव्यं॒ यव्यं॒ यन्तो॑ दी॒र्घाहेषं॒ वर॑मरु॒ण्यो॑ वरन्त ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

abhī no agna uktham ij juguryā dyāvākṣāmā sindhavaś ca svagūrtāḥ | gavyaṁ yavyaṁ yanto dīrghāheṣaṁ varam aruṇyo varanta ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

अ॒भि। नः॒। अ॒ग्ने॒। उ॒क्थम्। इत्। जु॒गु॒र्याः॒। द्यावा॒क्षामा॑। सिन्ध॑वः। च॒। स्वऽगू॑र्ताः। गव्य॑म्। यव्य॑म्। यन्तः॑। दी॒र्घा। अहा॑। इष॑म्। वर॑म्। अ॒रु॒ण्यः॑। व॒र॒न्त॒ ॥ १.१४०.१३

ऋग्वेद » मण्डल:1» सूक्त:140» मन्त्र:13 | अष्टक:2» अध्याय:2» वर्ग:7» मन्त्र:3 | मण्डल:1» अनुवाक:21» मन्त्र:13


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है ।

पदार्थान्वयभाषाः - जैसे (द्यावाक्षामा) अन्तरिक्ष और भूमि (सिन्धवः) समुद्र और नदी तथा (अरुण्यः) उषःकाल (च) और (वरम्) उत्तम रत्नादि पदार्थ (इषम्) अन्न (उक्थम्) प्रशंसनीय (गव्यम्) गौ का दूध आदि वा (यव्यम्) जौ के होनेवाले खेत को (यन्तः) प्राप्त होते हुए (स्वगूर्त्ताः) अपने अपने स्वाभाविक गुणों से उद्यत (दीर्घा) बहुत (अहा) दिनों को (वरन्त) स्वीकार करें वैसे हे (अग्ने) विद्वान् ! (नः) हम लोगों को (अभि, इत्, जुगुर्याः) सब ओर से उद्यम ही में लगाइये ॥ १३ ॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। मनुष्यों को सदा पुरुषार्थी होना चाहिये, जिन यानों से भूमि, अन्तरिक्ष, समुद्र और नदियों में सुख से शीघ्र जाना हो, उन यानों पर चढ़कर प्रतिदिन रात्रि के चौथे प्रहर में उठकर और दिन में न सोयकर सदा प्रयत्न करना चाहिये, जिससे उद्यमी ऐश्वर्य को प्राप्त होते हैं ॥ १३ ॥इस सूक्त में विद्वानों के पुरुषार्थ और गुणों का वर्णन होने से इस सूक्त के अर्थ की पिछले सूक्त के अर्थ के साथ सङ्गति है, यह जानना चाहिये ॥यह एकसौ चालीसवाँ सूक्त और सातवाँ वर्ग समाप्त हुआ ॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनस्तमेव विषयमाह ।

अन्वय:

यथा द्यावाक्षामा सिन्धवोऽरुण्यश्च वरमिषमुक्थं गव्यं यव्यं यन्तः स्वगूर्त्ताः सन्तः दीर्घाहावरन्त तथाग्ने नोऽभीज्जुगुर्य्याः ॥ १३ ॥

पदार्थान्वयभाषाः - (अभि) आभिमुख्ये। अत्र संहितायामिति दीर्घः। (नः) अस्मान् (अग्ने) विद्वन् (उक्थम्) प्रशंसनीयम् (इत्) (जुगुर्याः) उद्यच्छेः। उद्यमिनः कुर्याः (द्यावाक्षामा) अन्तरिक्षं भूमिश्च (सिन्धवः) समुद्रा नद्यश्च (च) (स्वगूर्त्ताः) स्वैरुद्यताः (गव्यम्) गोर्विकारं दुग्धादिकं सुवर्णादिकं वा (यव्यम्) यवानां भवनं क्षेत्रम् (यन्तः) प्राप्नुवन्तः (दीर्घा) दीर्घाणि (अहा) दिनानि (इषम्) अन्नम् (वरम्) रत्नादिकम् (अरुण्यः) उषःकाला (वरन्त) स्वीकुर्युः। अत्र व्यत्ययेन शप् ॥ १३ ॥
भावार्थभाषाः - अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। मनुष्यैः सदा पुरुषार्थिभिर्भवितव्यं यैर्यानैः भूम्यन्तरिक्षसमुद्रनदीषु सुखेन गमनं स्यात्तानि यानान्यारुह्य प्रतिदिनं रजन्याश्चतुर्थे प्रहर उत्थाय दिवसेऽसुप्त्वा सदा प्रयतितव्यं यत उद्यमिन ऐश्वर्यमुपयन्त्यत इति ॥ १३ ॥अत्र विद्वत्पुरुषार्थगुणवर्णनादेतत्सूक्तार्थस्य पूर्वसूक्तार्थेन सह सङ्गतिरस्तीति वेद्यम् ॥इति चत्वारिंशदुत्तरं शततमं सूक्तं सप्तमो वर्गश्च समाप्तः ॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. माणसांनी नेहमी पुरुषार्थी व्हावे. ज्या यानांनी भूमी, अंतरिक्ष, समुद्र व नद्यातून सुखाने जलद जाता येईल अशा यानांतून दररोज रात्रीच्या चौथ्या प्रहरी उठून दिवसा न झोपता सदैव प्रयत्न केला पाहिजे ज्यामुळे ऐश्वर्य प्राप्त व्हावे ॥ १३ ॥